एक मीठी जंग धूप के संग
रवि की लालिमा पसरते ही ,
दरख्त के पत्तों के
झुरमुट से
सुनहरी भोर ठुमकती आती ,
साथ गुनगुनी धूप लाती
इन्तजार होता मुझे भी
उसका ,
वो धीरे से कानों में
कहती ,
लो ! मैं आ गई , जागो ,
उठो, लड़ो जंग, मेरे संग |
मैं मुस्कुराती,अंगडाई ले,रजाई हटाती ,
पर ये क्या ! फिर खींचकर ओढ़
लेती |
धूप मुस्कुराती ,हौले से फुसफुसाती
“ऐसे ही लेटी रहोगी तो ,
हार जाओगी आज फिर एक बार”
मैं खिलखिला,रजाई फेंक एक ओर,
तैयार हो जाती लड़ने को जंग ,
गुनगुनाती, मीठी धूप के संग |
पर ! धूप कहाँ रुकी है , कब ठहरी है ?
मुझे चिढ़ाते हुए मेरे
कमरे से निकल
आगे बढ़ जाती , मैं झटपट हो तैयार ,
करके श्रृंगार ,करती हूँ पीछा
उस मदमस्त धूप का ,ले संकल्प
आज तो मैं लूँगी अल्पाहार
महकती-चमकती धूप के संग |
ऐं ! ये क्या ? जब तक मैं लगाती
अल्पाहार की थाली,धूप चली आगे
मुस्कराती ठेंगा मुझे
दिखाती |
मैं भी कब थी हार मानने
वाली
खुली चुनौती उसे दे डाली
आना बच्चू कल पछाड़ दूंगी
तुम्हें ! तुम देखना मेरे
तेवर |
अगले दिन जीतने की उमंग
लिए
करने लगी धूप का इन्तजार |
तान सारे पर्दों को जो
सोई ,
तो सुबह ताना मारती
पर्दों की संदो से झांककर
धूप ने
मुझे झकोरा "क्यों रह गई न
सोती" ?
मैं उठ बैठी तह लगा रजाई
की
रख दी एक, ओर मुस्करा किया
स्वागत अपनी नींद की
दुश्मन का
हटा दिए सारे परदे और कहा
“झांकती क्यों हो? आओ बैठो मेरे संग,
ये तो सुहाना सफ़र है
जिन्दगी का
चलती रहेगी यूँ ही हमारी
जंग ,
कभी तुम हारी तो कभी हम
हारे ,
न तुम्हारे बिना जीवन किसी का ,
न हमारे बिना अस्तित्व
तुम्हारा”
तो चलो करती हूँ मैं
आलिंगन तुम्हारा
धूप ने भी खिलखिलाकर बिना
कसे तंज
मनुहारी भाव से पसार भर
लिया बाहों में
बोली बड़ी चतुर हो तुम
बिना लड़े ही जीत गई जंग |
नीरा भार्गव